Nahush Ka Patan
नहुष का पतन
- Maithili Sharan Gupt
Ok, here goes the complete poem in hindi font. All thanks to Sameer Ji for posting it in comments section first and then to ishtvibhu and Vikas for corrections.
Also I may have made many grammatical or interpretation errors, so let me know if you notice any by leaving a comment - sachin
मत्त-सा नहुष चला बैठ ऋषियान में
व्याकुल से देव चले साथ में, विमान में
पिछड़े तो वाहक विशेषता से भार की
अरोही अधीर हुआ प्रेरणा से मार की
दिखता है मुझे तो कठिन मार्ग कटना
अगर ये बढ़ना है तो कहूँ मैं किसे हटना?
बस क्या यही है बस बैठ विधियाँ गढ़ो?
अश्व से अडो ना अरे, कुछ तो बढ़ो, कुछ तो बढ़ो
बार बार कन्धे फेरने को ऋषि अटके
आतुर हो राजा ने सरौष पैर पटके
क्षिप्त पद हाय! एक ऋषि को जा लगा
सातों ऋषियों में महा क्षोभानल आ जगा
भार बहे, बातें सुने, लातें भी सहे क्या हम
तु ही कह क्रूर, मौन अब भी रहें क्या हम
पैर था या सांप यह, डस गया संग ही
पमर पतित हो तु होकर भुंजग ही
राजा हतेज हुआ शाप सुनते ही काँप
मानो डस गया हो उसे जैसे पिना साँप
श्वास टुटने-सी मुख-मुद्रा हुई विकला
"हा ! ये हुआ क्या?" यही व्यग्र वाक्य निकला
जड़-सा सचिन्त वह नीचा सर करके
पालकी का नाल डूबते का तृण धरके
शून्य-पट-चित्र धुलता हुआ सा दृष्टि से
देखा फिर उसने समक्ष शून्य दृष्टि से
दीख पड़ा उसको न जाने क्या समीप सा
चौंका एक साथ वह बुझता प्रदीप-सा -
“संकट तो संकट, परन्तु यह भय क्या ?
दूसरा सृजन नहीं मेरा एक लय क्या ?”
सँभला अद्मय मानी वह खींचकर ढीले अंग -
“कुछ नहीं स्वप्न था सो हो गया भला ही भंग.
कठिन कठोर सत्य तो भी शिरोधार्य है
शांत हो महर्षि मुझे, सांप अंगीकार्य है"
दुख में भी राजा मुसकराया पूर्व दर्प से
मानते हो तुम अपने को डसा सर्प से
होते ही परन्तु पद स्पर्श भुल चुक से
मैं भी क्या डसा नहीं गया हुँ दन्डशूक से
मानता हुँ भुल हुई, खेद मुझे इसका
सौंपे वही कार्य, उसे धार्य हो जो जिसका
स्वर्ग से पतन, किन्तु गोत्रीणी की गोद में
और जिस जोन में जो, सो उसी में मोद में
काल गतिशील मुझे लेके नहीं बेठैगा
किन्तु उस जीवन में विष घुस पैठेगा
फिर भी खोजने का कुछ रास्ता तो उठायेगें
विष में भी अमर्त छुपा वे कृति पायेगें
मानता हुँ भुल गया नारद का कहना
दैत्यों से बचाये भोग धाम रहना
आप घुसा असुर हाय मेरे ही ह्रदय में
मानता हुँ आप लज्जा पाप अविनय में
मानता हुँ आड ही ली मेने स्वाधिकार की
मुल में तो प्रेरणा थी काम के विकार की
माँगता हुँ आज में शची से भी खुली क्षमा
विधि से बहिर्गता में भी साधवी वह ज्यों रमा
मानता हुँ और सब हार नहीं मानता
अपनी अगाति आज भी मैं जानता
आज मेरा भुकत्योजित हो गया है स्वर्ग भी
लेके दिखा दूँगा कल मैं ही अपवर्ग भी
तन जिसका हो मन और आत्मा मेरा है
चिन्ता नहीं बाहर उजेला या अँधेरा है
चलना मुझे है बस अंत तक चलना
गिरना ही मुख्य नहीं, मुख्य है सँभलना
गिरना क्या उसका उठा ही नहीं जो कभी
मैं ही तो उठा था आप गिरता हुँ जो अभी
फिर भी ऊठूँगा और बढ़के रहुँगा मैं
नर हूँ, पुरुष हूँ, चढ़ के रहुँगा मैं
चाहे जहाँ मेरे उठने के लिये ठौर है
किन्तु लिया भार आज मेने कुछ और है
उठना मुझे ही नहीं बस एक मात्र रीते हाथ
मेरा देवता भी और ऊंचा उठे मेरे साथ
My Humble Pranaam to Pal Sir of St. Peters School Mumbai, for bearing with me and having taught me this beautiful poetry.
Regards and Best Wishes
Muff
Thanks for uploading it.
Its great and searchning this Wonderful poem since long.
Regards
Thanks for the poem. This is a great piece. Kindly send me the full text to me on my mail Id nautiyalgautam@hotmail.com.
Best Regards
Ye kavita mujhe bahut pasand hai..ye kavita josh se bhara hua hai aur manushya ke aatmavishwas ko jagata hai..
Dhanywad is kavita ke liye...
My fav para - "Tan jiska ho mann aur aatma mera hai..........Girna hi mukhya nhn...mukhya hai sambhalna"
great favour done to poem lovers!
कहु shud be कहूं in 6th line
बैट shud be बैठ in 7th line
सोपे shud be सौंपे in 38th line
I may b wrong. Plz ignore these if so.
regards
Vikas agarwal (monu) :)
Thank you very much for sharing to full text of poem.
व्याकुल से देव चले साथ में, विमान में
पिछड़े तो वाहक विशेषता से भार की,
आरोही अधीर हुआ प्रेरणा से मार की !
“दिखता है मुझे तो कठिन मार्ग कटना,
अगर ये बढ़ना है तो कहुँ मैं किसे हटना ?
बस क्या यही है बस बैट विधियाँ गढ़ो ?
अश्व से अड़ो न अरे, कुछ तो बढ़ो, कुछ तो बढ़ो, बढ़ो .’’
बार बार कन्धे फेरने को, ऋषि अटके,
आतुर हो राजा ने सरोष पैर पटके.
क्षिप्त पद हाय! एक ऋषि को जो जा लगा,
सातो ऋषियों में महा क्षोभानल आ जगा !
“भार बहें, बातें सुनें, लातें भी सहे क्या हम ?
तू ही कह क्रूर, मौन अब भी रहें क्या हम ?
पैर था या सांप यह, डस गया संग ही.
पामर पतित हो तू होकर भुंजग ही .”
राजा हततेज हुआ शाप सुनते ही काँप,
मानो डस गया हो उसे जैसे पीनासाँप!
श्वास टूटने-सी मुख-मुद्रा हुई विकला,
”हा ! यह हुआ क्या?” यही व्यग्र वाक्य निकला !
जड़-सा सचिन्त वह नीचा सर करके,
पालकी का नाल डूबते का तृण धरके .
शून्य-पट-चित्र हुआ धुलता-सा दृष्टि से.
देखा फिर उसने समक्ष शून्य दृष्टि से .
दीख पड़ा उसको न जाने क्या समीप सा
’चौंका एक साथ वह बुझता प्रदीप-सा -
“संकट तो संकट, परन्तु यह भय क्या ?
दूसरा सृजन नहीं मेरा एक लय क्या ?”
सँभला अद्मय मानी वह खींचकर ढीले अंग -
“ कुछ नहीं स्वप्न था सो हो गया भला ही भंग.
कठिन कठोर सत्य ! तो भी शिरोधार्य है,
शांत हों महर्षि, मुझे शाप अंगीकार्य है .”
दुःख में भी राजा मुसकाया पूर्व-दर्प से -
“मानते हो तुम अपने को डसा सर्प से .
होते ही परन्तु पद स्पर्श भूल-चूक से
मैं भी क्या डसा नहीं गया हुँ दन्दशूक से ?
मानता हूँ भुल हुई, खेद मुझे इसका,
सौंपे वही कार्य, उसे धार्य हो जो जिसका .
स्वर्ग से पतन, किन्तु गोत्रिणी की गोद में,
और जिस जोन में जो, सो उसी में मोद में .
काल गतिशील, मुझे लेके नहीं बेठैगा,
किन्तु उस जीवन में विष घुस पैठेगा .
तो भी खोजने का कुछ रास्ता जो उठायेगें
विष में भी अमृत छुपा वे कृती पावेंगें.
मानता हूँ, आड़ ही ली मैंने स्वाधिकार की,
मूल में जो प्रेरणा थी काम के विकार की .
माँगता हूँ आज में शची से भी खुली क्षमा ,
विधि से बहिर्गता भी साधवी वह ज्यों रमा .
मानता हूँ, भूल गया नारद का कहना -
“दैत्यों से बचाये भोगधाम रहना .
आप घुसा असुर हाय ! मेरे ही ह्रदय में,
मानता हूँ आप लज्जा पाप-अविनय में .
मानता हुँ और सब, हार नहीं मानता
अपनी अगाति नहीं आज भी मैं जानता .
आज मेरा भुक्तोङ्झित हो गया है स्वर्ग भी,
लेके दिखा दूँगा कल मैं ही अपवर्ग भी .
तन जिसका हो मन और आत्मा मेरा है,
चिन्ता नहीं बाहर उजेला या अँधेरा है .
चलना मुझे है बस अंत तक चलना ;
गिरना ही मुख्य नहीं, मुख्य है सँभलना.
गिरना क्या उसका उठा ही नहीं जो कभी ?
मैं ही तो उठा था आप, गिरता हूँ जो अभी .
फिर भी उठूँगा और बढ़के रहूँगा मैं,
नर हूँ, पुरुष हूँ मैं, चढ़ के रहूँगा मैं .
चाहे जहाँ मेरे उठाने के लिये ठौर है.
किन्तु लिया आज मैंने भार कुछ और है .
उठना मुझे ही नहीं बस एक मात्र रीते हाथ,
मेरा देवता भी और ऊंची उठे मेरे साथ .”
This is the only poem i remember in last 30 yrs!
very inspirational -
I would like to thank you from the bottom of my heart for putting up this highly inspirational great poem of Sh Mathili Sharan Gupt on Net.
I first read this poem in BCOM (Hons) 2nd Year in 1994-95 in Delhi University. I preserved this book for 5-7 years but then somehow i lost the book. I was searching for this poem from all known sources from last 10 years, only today after such a long search i could see this on this page.
Thanks once again. Keep posting such good poems, stories etc
Best Regards
Sachin Kumar
I would like to thank you from the bottom of my heart for putting up this highly inspirational great poem of Sh Mathili Sharan Gupt on Net.
I first read this poem in BCOM (Hons) 2nd Year in 1994-95 in Delhi University. I preserved this book for 5-7 years but then somehow i lost the book. I was searching for this poem from all known sources from last 10 years, only today after such a long search i could see this on this page.
Thanks once again. Keep posting such good poems, stories etc
Best Regards
Sachin Kumar
Regards,
Rohitesh.
P.S. You can see my mail id, can't you?
Vyakul se dev chale saath me vimaan me,
Pichade to vahak visheshta se bhar ki,
Arohi adhir hua prerna se maar ki.
Dikhta hai mujhe to kathin marg katna,
Agar yeh badhana hai to kahun me kise hatna,
Bas kya yahi hai bas baith vidhiyan gadho,
Ashva se ado naa arey kuch to badho-2
Baar baar kandhe pherne ko rishi atke,
Atur ho Raja ne sarosh per patke,
Kshipt pad haiy! ek rishi ko jo laga,
Satoon rishiyon me maha kshobhanal aa jaga.
Bhar bahe, bateein sune, late bhi sahe kya hum,
Tu hi kah krur maun ab bhi rahi kya hum.
Pair tha yaa saap ye das gaya sang hi,
Pamar patit ho tu hokar bhujang hi.
Raja hattej hua shap sunte hi kaap,
Mano dasa gaya ho use jaise pina saap,
Shwasa tutne ki mukh mudra hui vikla,
Ha! yeh hua kya yehi vygara vakya nikla.
Jad sa sachinta vah nicha sir karke,
Palki ka nal dubte ka trin dharke,
Shunya pat chitra dhulta hua sa drishti se,
Dekha phir usne samakshya shunya drishti se.
Naa jane use dikha kya sameep sa,
Chuka ek saath vah buhjta pradeep sa
Sankut to sankut parantoo yeh bhay kya,
Dusra srijan nahi mera ek laya kya.
Sambhla adamya mano vah khichkar dhile ang,
Swapna tha so bhala hi ho gaya bhang,
kathin khator satya to bhi shirodharya hai,
Shant ho maharishi mujhe shap angi karya hai.
Dukh me bhi raja muskraya poorva darp se,
Mante ho tum apne ko dasa sarpa se,
Hote hi parntoo padsparsha bhool chook se,
Me bhi kya dasa nahi gaya hun dadanshook se.
Manta hun bhul hui, mujhe eska,
Soope wahi karya, use dharya ho jo jiska,
Swarga se patan, kintu gotrini ki good me.
Aur jo jis jon me so usi me mod me.
Kaal gatishill mujhe leke nahi baithega,
Kintu us jivaan me vish ghuspaithega,
Phir bhi khojne ka kuch kashta to uthainge,
Vish me bhi amrut chupa ve kriti payenge.
Manta hun bhul gaya narad ka kahna,
Daityon se bachaye bhog dham rahne,
Aap ghusa asur haiy mere hi hriday me,
Manta hun aap lajja paap avinay me.
Mangta hun aaj me shachi se bhi khuli shama,
Vidhi se bahirgata me bhi sadhvi vah jyon rama.
Manta hun aur sab har nahi manta,
Apni agati aaj bhi mai janata,
Aaj mera bhuktojit ho gaya hai swarg bhi,
Leke dikha dunga kal mai hi apvarga bhi.
Tan jiska ho maan aur aatma mera hai,
Chinta nahi bahar ujela yaa andhera hai,
Chalana mujhe hai bas anta tak chalna,
Girna hi mukhya nahi mukhya hai sambhalna.
Girna kya uska utha hi nahi jo kabhi,
Mai hi to utha tha aap girta hun jo abhi,
Phir bhi utunga aur bhad ke rahunga me,
Nar hun purush hun me chad ke rahunga me.
Chahe jahan mere uthne k liye thor hai,
Kintu liya bhar aaj maine kuch aur hai,
Uthna mujhe hi nahi ek matra rite haath,
Mera devta bhi aur uncha uthe mere saath.
i have full poem'nahush ka patan" but can you tell me how to add this?
or i can attatch scanned copy of it?
Read this poem about 8 years back and had been searching for it on the Inter-net from a long time... and to my disappointment Mr. S. Goyal has typed only a few lines :-(.
If anyone has this in complete please send it at my id.. ugetvishal@indiatimes.com...
Wud have loved to type in hindi... but sorry folks not aware of the tools to do so...
Cheers, Vishal
This is one of my favorite poems, however I think whom so ever has typed it has made some error.
If you want to share some good poem, please do send me at sudip.v@rediffmail.com
Regards,
Sudip